“शिक्षा-स्वास्थ्य पर बढ़ता बोझ, किसकी जिम्मेदारी?”
✍ विजय गर्ग ……….. सेवानिवृत्त प्रिंसिपल

बाजार की चकाचौंध में गुम होती संवेदनाएँ
हाल के वर्षों में शिक्षा और चिकित्सा का जिस तेजी से बाजारीकरण हुआ है, उसने आम आदमी को बदहाली के कगार पर ला खड़ा किया है। महंगी शिक्षा ने जहां अभिभावकों का बजट हिला डाला है, वहीं इलाज के नाम पर मुनाफाखोरी ने लाखों परिवारों को गरीबी के दलदल में धकेल दिया है।
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने इंदौर में किफायती कैंसर देखभाल केंद्र का उद्घाटन करते हुए इस नब्ज़ पर हाथ रखा। उनका कहना था कि भारत में स्वास्थ्य और शिक्षा सदियों से सामाजिक दायित्व माने जाते रहे हैं, लेकिन आज ये कॉर्पोरेट लालच के अड्डे बन गए हैं।
इलाज नहीं, लूट का ज़रिया
भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का 82% खर्च सीधे लोगों की जेब से जाता है, जबकि सरकार महज़ 17% वहन करती है। यही कारण है कि एक गंभीर बीमारी का इलाज परिवारों को जीवनभर के कर्ज में डुबो देता है। हृदय रोग, मधुमेह और कैंसर जैसे रोग अब केवल चिकित्सकीय चुनौती नहीं रहे, बल्कि आर्थिक विनाश का पर्याय बन गए हैं।
शिक्षा का मंदिर या व्यापार का केंद्र?
स्कूल-कॉलेज आज सरस्वती के मंदिर कम, व्यवसायिक उपक्रम अधिक बन चुके हैं। एडमिशन फीस, बिल्डिंग फीस, ट्रांसपोर्ट फीस और किताबों-ड्रेस पर जबरन वसूली ने अभिभावकों की कमर तोड़ दी है। छोटे शहरों में भी माता-पिता प्रति बच्चे पर सालाना 60 हजार से ज्यादा खर्च करने को विवश हैं। हालात इतने भयावह हैं कि हैदराबाद के एक स्कूल में नर्सरी में दाखिले की फीस 2.5 लाख रुपये सालाना बताई गई—यह शिक्षा नहीं, सरासर लूट है।
जनाक्रोश और सत्ताधीशों की जिम्मेदारी
दिल्ली के निजी स्कूलों में फीस वृद्धि के खिलाफ अभिभावक जब सड़कों पर उतरे, तो सरकार को मजबूरी में हस्तक्षेप करना पड़ा। परिणामस्वरूप निजी स्कूलों की फीस विनियमित करने वाला कानून बना। यह इस बात का प्रमाण है कि यदि जनता संगठित होकर आवाज उठाए, तो बदलाव संभव है।
केवल CSR नहीं, असली लोककल्याण
भागवत ने ठीक ही कहा कि कॉर्पोरेट शैली का CSR (कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) खोखला जुमला है। जरूरत है लोककल्याण की उस असली भावना की, जो भारतीय संस्कृति की आत्मा रही है। शिक्षा और स्वास्थ्य को यदि सरकार राजस्व स्रोत के बजाय नागरिक अधिकार माने, तो ही समानता और न्याय पर आधारित समाज का निर्माण संभव होगा।
निष्कर्ष
शिक्षा और स्वास्थ्य को मुनाफाखोरी की मंडी से निकालकर सेवा और संवेदना के दायरे में लाना होगा। यह केवल आर्थिक सुधार नहीं, बल्कि नागरिक अधिकार और सामाजिक न्याय की अनिवार्य शर्त है। सवाल यही है—क्या सत्ताधीश इस चेतावनी को सुनेंगे या फिर बाजार के दबाव में आम आदमी की उम्मीदें कुचलती रहेंगी?