आचार्य डॉ महेन्द्र शर्मा ‘महेश’

श्री मद्भगवदगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने 18 योगों का वर्णन किया है जिनमें प्रमुखता ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग संन्यास योग , कर्म योग, कर्म संन्यास योग आदि हैं l ज्ञान योग से ज्ञान की खोज, भक्ति से प्रेम समर्पण, ध्यान से एकाग्रता और मन की शान्ति की प्राप्ति होती हैl योग के आठ नियम हैं … यम, नियम ,आसन, प्राणयाम, प्रत्याहार,धारणा, ध्यान और समाधि l
योग शब्द के भी अनेक अर्थ है जिनका उपयोग, प्रयोग और उनपर क्रियान्वयन करते हुए हमको अलग अलग अर्थ समझ मे आते है l गणित के अध्यापक के पास चले गए तो योग का अर्थ जमा करना. होता है , ज्योतिषाचार्य के पास योग तिथि योग और करण से बनता है , बालकों के रिश्तों की बात चले तो हमें यही सुनने को मिलता योग तो ठीक है , धर्म आध्यात्म में चले जाएं जीवात्मा के ब्रह्म से मिलन को. योग कहते हैं लेकिन योगा तो उछलने कूदने और व्यायाम को कहते हैं एक भद्र विप्र महापुरूष से यही संवाद चल रहा था कि फिर योग और योगा में अन्तर क्या है तो व्यंग में मैंने य़ह कह दिया कि य़ह जो योगा शब्द है न य़ह योग की धर्मपत्नी का नाम है जिससे भारतवर्ष इस तरह से असमंजस में है कि जैसे हमारे पास किसी सिख परिवार से विवाह का निमन्त्रण पत्र आ जाए तो आप को यह निमन्त्रण पत्र के लिफाफे पर लिखे शब्द “महिंदर वेडस सुरिंदर” से समझ नहीं आयेगा कि जिनके घर से विवाह का निमन्त्रणपत्र आया हैं उनके बेटे की शादी है या बेटी की …
भारतीय जनमानस में कमोबेश यही स्थिति बनी हुई है कि आखिर योग और योगा में अन्तर क्या है ? हम सभी इसी भीड़ में शामिल है और उत्तर ढूंढने में अकेले पड़ गए है कि मेरी धर्मपत्नी जो सेवानिवृत देव भाषा की अध्यापिका हैं ने मुझे डांट दिया कि इस विषय बेकार की मगज मारी का कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि आज के जनमानस को आध्यात्म से कोई सरोकार है नहीं तो फिर धर्म को एक तरफ कर दो की अव्वल तो मोक्ष दिवास्वप्न है और स्वर्ग में मरने के बाद भी अकेले ही मरना पड़ेगा क्योंकि बाकी सारे इष्ट, मित्र , यार दोस्त, सगे सम्बन्धी और रिश्तेदार तो नर्क में मिलेंगे l धन्य हमारी सनातन संस्कृति, पाठ, पूजा, अनुष्ठान, रस्म पगड़ी और रात्रि जागरण हों जहां हम तभी समय पर पहुंचते हैं जब वहां खाना खाना हो अन्यथा दो से तीन वाली रस्मक्रिया मे पहुंचते ही .हम घड़ी देखते हैं कि पंडित जी न जाने क्यों देर कर रहे हैं हद तो. तब हो जाती है जब हम ज्योतिषाचार्य से किसी उपाय को पूछते समय यह कहना नहीं भूलते कि पंडितजी शाम को दारू का परहेज तो नहीं है न …
कुछ समय एक गोद गए बालक के धनाढ्य पिता चल बसे …. रस्म पगड़ी के दो दिन धर्मशान्ति करवाने के लिए उसने अपने ब्राह्मण को फोन लगाया कि पंडित जी! मुझे अपने पिताजी की सूक्ष्म धर्म शान्ति करवानी है, बस दस मिनट में काम हो जाए , ब्राह्मणों के पैर नहीं धोऊगा और न ही उन्हें घर मे बिठाने का भी कोई काम नहीं सब कुछ रेडीमेड होगा, उन्हें प्लास्टिक के लिफाफे में भोजन दे कर विदा कर दूंगा l वास्तव में तो योग चितवृत्तियों को संतुलित करने का नियमन है जिसमें कुछ वर्जनाएं है जिनका हमें निरोध करना है महर्षि पतंजलि भी यही कहते है … योगश्च चितवृति निरोध आप अंतर्मुखी बनें और मन को नियन्त्रित करते हुए ईश्वर से जुड़ने का प्रयास करें ,अपनी वाणी, कामनाओं, वासनाओं, इच्छाओं को घटभीतर में समेटेंl गुरुवाणी भी यही कहती है देवो सज्जन असीसणियां ज्यों साहिब से होवे मेल
ईशावास्य उपनिषद के पहले दो श्लोकों से स्पष्टता से लिखा है …ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत् … इस संसार में आपको ईश्वर की कृपा से और आपके कर्मों से प्रारब्ध में कुछ भी मिला है उसे त्यागपूर्वक भोगों, क्योंकि यह तुम्हारा नहीं है l दूसरे श्लोक में कहा
कुर्वन्नेव हि कर्माणि जिजीविशेष्तं समाँ… शुभ कर्म करते हुए आप सौ वर्ष तक जीवन जीने की कामना करें l इन दो श्लोकों में भी मनोवृति नियन्त्रित होंगी तभी तो जीव शुभ कर्म करेगा और भावी जीवन के लिए और बढ़िया सुखभोग प्राप्त करेगा ,सौ वर्ष तक के जीवन की कामना इसलिए की गई जीव को अधिकाधिक समय तक शुभकर्मों का संचय करने का अवसर मिलेगा और मोक्ष का मार्ग भी प्रशस्त होगा l सौ वर्ष का जीवन कैसे प्राप्त किया जाये यह तो हम अपने शरीर को स्वस्थ रख कर सकते हैं य़ह तो एक प्रकार का व्यायाम ही है योग तो कर्म के माध्यम से प्रारब्ध का निर्माण और मोक्ष प्राप्त करने का योग है l
मेरे गुरुदेव भगवान गोलोक वासी महामहिम जगद्गुरु शंकराचार्य श्री स्वामी दिव्यानंद जी तीर्थ ने भी मंच पर उच्छल कूद को योग नहीं माना था l लेकिन जनमानस को आज तक किसी भी धार्मिक मंच से न तो योग की परिभाषा समझाई और न ही किसी सनातनधर्मी ने इसे समझने की कोशिश की और इसी अनभिज्ञता के बाबा ने पतंजलि के नाम से इंडस्ट्री खड़ी कर दी l यदि योग पर पूर्ण अध्ययन और संधान होता तो बाबा स्त्रियों के कपड़े धारण क्यों किए, उसे तो योग के माध्यम से मंच से अंतर्ध्यान हो जाना चाहिए था l इस योगक्रिया को कभी देखना हो तो अनिल कपूर की mr india फिल्म देखना… आपको योग समझ आ जाएगा कि घटनास्थल से योग के विज्ञान से कैसे अदृश्य होते हैं l इनके मंच तो किसी राजनैतिक दल विशेष के प्रचार माध्यम मात्र हैं जहां से वो उड़ती चिड़िया को पकड़ लेते है और परोक्ष मार्ग से आम जनता से जुड़ जाते हैं अब कलियुग का ही तो प्रभाव है कि सब को मुफ्त में सुविधा चाहिए l इनको देख कर दूसरे महापुरुष भी काम, मोह,आसक्ति और लालच में आकर स्वयं को परोस देते हैं , जिसने सत्ता के सामने शीर्षासन कर दिया, राजसी सुख सुविधा भोग ली वो अब कहीं नहीं जाएगा यह समझें कि साधु संत को मोक्ष प्राप्त हो गया l
अभी गत सप्ताह किसी राजनीतिज्ञ यजमान के यहां धर्मशान्ति में तर्पण करवाने का अवसर मिला तो क्रिया के बाद एक जिज्ञासु जिसके हाथ में अखबार थी, उसने प्रश्न किया कि आपने तीन पीढ़ियों तक के दिवंगत सदस्यों का तर्पण करवाया उससे आगे का क्यों नहीं … उसने कहा कि हम पंजाबी राष्ट्र विभाजन की न भूलने वाली पीड़ाजनक विभीषिका से गुजरे हैं और अपने बुजुर्गों से अतीत की बातें भी सुनते हैं l हमें स्वतंत्र हुए 78 वर्ष बीत गए हैं , एक बालक जब जन्म लेता है यदि नवजात शिशु को उसकी दादी/ दादा, नाना/ नानी आदि अपने अंक में भर तो उस नवजात शिशु ने जन्म लेते ही तीन पीढ़ियों के दर्शन कर लिए और उसकी दादा दादी की उम्र यदि 85 वर्ष के आसपास हुई तो उन्होंने छठी पीढ़ी के दर्शन किए, इससे अगर हम आगे बढें यदि कोई महापुरूष शतायु + हुआ तो वह तो और भी भाग्यशाली हो जाएगा जिसने सातवीं पीढ़ी के दर्शन कर लिए वह तो पुण्यात्मा होगा l
अब राजनैतिक जिज्ञासा य़ह है कि दल विशेष को लोगों के साथ जुड़ना है तो विभाजन विभीषिका में जो दिवंगत हुए आज के लोगों के लिए तो पांचवीं पीढ़ी है और पितरों के श्राद्ध तर्पण तो तीन पीढ़ियों तक करने का नियम है तो उन दिवंगत आत्माओं का सामुहिक तर्पण हम कैसे कर सकते हैं l यह बात इतने तक तो जायज है कि उनके सम्मान में स्मृति स्थल का निर्माण किया जाये जहां पर अखण्डज्योति प्रज्वलित रहे लेकिन उनके प्रति श्राद्धतर्पण करने का विधान तो कहीं नहीं है बस एक political narrative चला कर जनता को छला जाता है जब पता चलता है वह विषय तो उलटा गले पड़ रहा है तो हाथ वापिस खींच लिए जाते हैं लेकिन अबोध लोग साधु महापुरुषों की हुंकार को सुन कर उनके पीछे भागते हैं, अब जनता को धीरे धीरे समझ आ तो रही है लेकिन अभी जागृति नहीं है कि आखिर योगा का कुचक्र क्या है ? साधु संत संन्यासी तो जीते जी अपना प्रेत कर्म, श्राद्ध कर्म कर लेते हैं , उन्हें किसी अन्य दिवंगत को जल तर्पण और श्राद्ध देने की वेद आज्ञा नहीं है लेकिन इस सरकारी सुविधा का दाम तो धर्म चुकता कर रहा है l
क्योंकि हमने तो ग्रंथों का अध्ययन नहीं किया और मृत्योपरान्त गरुड़ पुराण भी नहीं सुना इसलिए हमें धर्म का ज्ञान ही नहीं है l गुरु पूर्णिमा के दिनों में एक राजनैतिक दल के प्रसिद्ध महानुभाव के साथ बैठे थे, गुरुपूर्णिमा की चर्चाओं का बाजार गर्म था , हर कोई किसी न किसी साधु संत से जुड़ा हुआ था तो एक महानुभाव बोला कि हम तो हर गुरु पूर्णिमा चार पांच लाख इनके यहां फेंक आते है , किसीने कहा समझे नहीं कि फेंक आते है वह व्यक्ति जिसने कहा था कि फेंक आते है , बोला कि आज के दिन यही राजनैतिक सत्य है, सभी को थोड़ाथोड़ा यथायोग्य देते हैं कि व्यापार में सरकारी हस्तक्षेप कम हो जाती है , जिस स्तर का काम होता है उसी स्तर का अफसर होता है उसी स्तर का बाबा…. शायद इसी को ही योगा कहते हैं l
स्वयं भगवान श्रीकृष्ण नें मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी मोक्षदा एकादशी को जब महाभारत प्रारम्भ हुआ था उसी दिन कुरुक्षेत्र के ज्योतिसर में अर्जुन को गीता उपदेश में य़ह योग बताए थे , यही दिन योग दिवस हो सकता था, जिनके नाम से योगा/पतंजलि योग चल रहा है किसी भी ग्रंथ में उनकी जन्म तिथि का कोई उल्लेख नहीं है, लेकिन योगा दिवस इसलिए 21 जून को मनाया जाता है कि इस दिन जनता को भालू बनाने पर पहली बार विचार हुआ था l जब कि इसे तो बसंत ऋतु में मनाया जाना चाहिए था न कि ग्रीष्म ऋतु में l एक राजनैतिक दल बहुत बड़ा सुन्दर Political nexus Yoga चल रहा हैं , राजनैतिक दल बाबाओं को खुश कर रहे हैं और बाबा पार्टी के नेताओं से मिलकर मन्दिरों को पैसा दे रहे हैं, मन्दिरों को जब पैसा मिलता हैं , पैसा देने वाले नेता से जनता प्रसन्न होती है और दल विशेष से जुड़ी रहती हैl इस योगा से राजनैतिक दल का प्रचार पूर्णतया सरकारी खर्च से होता हैं जिसे Chogam ( Chaps enjoying holiday on government money ) कहते हैं l जिससे तीनों लोकों का कल्याण होता है अर्थात राजनैतिक दल को सत्ता , दूसरा बाबाओं को सुख सुविधा और तीसरा स्थानीय नेता को वोट ,अफसरों को कमीशन मिलता है उसे योगा कहते हैं l