राजस्थान मृत्यु भोज निवारण अधिनियम 1960 के तहत मृत्यु भोज कानून दंडनीय है

पारिवारिक सदस्य की मृत्यु पर 13 दिवसीय शोक पर मृत्यु भोज को कुरिति/रीति या धार्मिक संस्कार इसपर बहस छिड़ी-राष्ट्रीय स्तरपर इसका समाधान होना ज़रूरी

– एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी

गोंदिया – वैश्विक स्तरपर भारत विविधताओं का देश है। यहाँ हजारों समाज, जातियाँ और धर्म अपने-अपने रीति-रिवाजों के साथ अस्तित्व में हैं। यही कारण है कि भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरोहर को दुनिया भर में विशेष पहचान मिली है। अनेक परंपराएँ, संस्कार और धार्मिक मान्यताएँ इस देश की पहचान बन चुकी हैं। किंतु इन्हीं परंपराओं में कुछ ऐसे रिवाज भी हैं जिन्हें समय के साथ “कुरीति” कहा जाने लगा है। उनमें से एक है मृत्यु भोज, जिसे किसी परिजन की मृत्यु के बाद तेरहवीं संस्कार के रूप में आयोजित किया जाता है।

परंपरा बनाम कानून

परिवार में किसी सदस्य की मृत्यु के बाद तेरह दिन का शोककाल रखा जाता है और अंतिम दिन “तेरहवीं” या “बारहवीं” पर मृत्यु भोज का आयोजन होता है। रिश्तेदार और समाज के लोग इसमें शामिल होकर मृतक की आत्मा की शांति हेतु प्रार्थना करते हैं। किंतु आज के समय में यह परंपरा परिवारों के लिए सामाजिक दबाव और आर्थिक बोझ बन चुकी है।ऐसे ही एक प्रकरण पर जब मैंने (एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी, गोंदिया, महाराष्ट्र) विचार किया तो मुझे राजस्थान मृत्यु भोज निवारण अधिनियम 1960 की जानकारी मिली। इस अधिनियम के अनुसार मृत्यु भोज आयोजित करना या उसमें भाग लेना दंडनीय अपराध है। कानून के मुताबिक, इसमें शामिल व्यक्ति को एक वर्ष तक की जेल या एक हजार रुपये जुर्माना या दोनों की सजा हो सकती है।

सामाजिक दबाव और आर्थिक बोझ

गोंदिया की एक महिला से बातचीत में यह तथ्य सामने आया कि उनके पति के निधन के बाद 13 दिवसीय शोक में ही लगभग 1 लाख रुपये खर्च हो चुके थे और मृत्यु भोज पर और 40-50 हजार रुपये खर्च होने थे। उन्होंने स्पष्ट कहा कि वे मृत्यु भोज करना नहीं चाहती थीं, परंतु समाज का दबाव, बदनामी का भय और “प्रतिष्ठा” का प्रश्न होने के कारण उन्हें मजबूरन यह सब करना पड़ रहा था।

यह स्थिति केवल एक परिवार की नहीं है, बल्कि पूरे देश में असंख्य परिवार इस “परंपरा” के नाम पर आर्थिक रूप से टूट रहे हैं।

राजस्थान पुलिस की चेतावनी

13 दिसंबर 2023 को राजस्थान पुलिस ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X (ट्विटर) पर पोस्ट किया था कि “मृत्यु भोज करना और उसमें शामिल होना कानूनन दंडनीय है।” साथ ही यह भी कहा गया कि मानवीय दृष्टिकोण से यह आयोजन अनुचित है और इसे समाज से दूर करने की आवश्यकता है।

कई लोगों ने इसका समर्थन किया तो कई ने विरोध जताया। कुछ ने इसे हिंदू धर्म विरोधी कानून तक कह डाला, जबकि कुछ ने सुझाव दिया कि ऐसा कानून पूरे देश में लागू होना चाहिए ताकि शोकाकुल परिवारों को सामाजिक दबाव और आर्थिक शोषण से बचाया जा सके।

राजस्थान में मृत्यु भोज की हकीकत

राजस्थान में “नुक्ता” नाम से जाने जाने वाला मृत्यु भोज अतीत में बहुत बड़ी कुरीति बन चुका था। शादियों की तरह हजारों लोगों को मृत्यु भोज में आमंत्रित करने का दबाव रहता था। कमजोर आर्थिक स्थिति वाले परिवार भी समाज के भय से इस आयोजन के लिए कर्ज लेने पर मजबूर हो जाते थे। यही कारण है कि सरकार ने 1960 में इस पर रोक लगाने का कठोर कानून बनाया।

राजस्थान मृत्यु भोज निवारण अधिनियम 1960 की मुख्य बातें

  1. परिभाषा – मृत्यु भोज का अर्थ है किसी व्यक्ति की मृत्यु के अवसर पर आयोजित किया जाने वाला भोज, जिसमें “नुक्ता”, “मोसर” और “चहल्लुम” भी शामिल हैं।
  2. निषेध – कोई भी व्यक्ति मृत्यु भोज आयोजित नहीं करेगा, न देगा और न ही उसमें शामिल होगा।
  3. सजा – उल्लंघन पर 1 वर्ष की कैद, 1000 रुपये तक जुर्माना या दोनों।
  4. लोगों की संख्या पर सीमा – धार्मिक संस्कार के नाम पर 100 से अधिक लोगों को भोजन नहीं कराया जा सकता।
  5. निषेधाज्ञा – अदालत मृत्यु भोज पर रोक लगाने का आदेश दे सकती है।
  6. अवमानना – आदेश की अवहेलना पर एक वर्ष की कैद और जुर्माने का प्रावधान है।
  7. ग्राम पंचायत की जिम्मेदारी – सरपंच, पंच, पटवारी आदि को मृत्यु भोज की सूचना मजिस्ट्रेट को देनी होगी। सूचना न देने पर भी सजा का प्रावधान है।
  8. उधार पर रोक – मृत्यु भोज के लिए कर्ज लेना-देना निषिद्ध है। ऐसे कर्ज को अदालत में लागू नहीं माना जाएगा।
  9. न्यायालय का अधिकार क्षेत्र – केवल प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट ऐसे मामलों की सुनवाई कर सकते हैं।
  10. सीमा अवधि – अपराध के एक वर्ष के भीतर ही मुकदमा दायर किया जा सकता है।

बहस का मुद्दा

आज सवाल यह है कि मृत्यु भोज वास्तव में धार्मिक संस्कार है या कुरीति? क्या समाज का दबाव परिवारों को आर्थिक संकट में डालकर मृतक की आत्मा की शांति दिला सकता है?

कानून स्पष्ट है – मृत्यु भोज अपराध है। परंतु सामाजिक मानसिकता बदलने की जरूरत है।

अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन करें इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे के भारत जैसे देश में परंपराओं और संस्कारों का महत्व है, लेकिन जब कोई परंपरा किसी परिवार को कर्ज, आर्थिक बोझ और मानसिक तनाव में डालती है तो वह परंपरा नहीं, कुरीति कहलाती है। राजस्थान मृत्यु भोज निवारण अधिनियम 1960 इसी कुरीति को रोकने का प्रयास है।

इसलिए अब आवश्यक है कि राष्ट्रीय स्तर पर भी इस कानून की समीक्षा हो और पूरे देश में इसे लागू किया जाए, ताकि कोई भी शोकाकुल परिवार समाज के दबाव में आर्थिक संकट का शिकार न हो।

 संकलनकर्ता – लेखक: कर विशेषज्ञ, स्तंभकार, साहित्यकार, अंतरराष्ट्रीय लेखक, चिंतक, कवि, संगीत माध्यमा, सीए(एटीसी), एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी, गोंदिया (महाराष्ट्र)

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